Sunday, September 16, 2018

DEVRAHA BABA KA GYAN (special photos)

परस्य संगवर्जनं तथात्मनो जुगुत्सनं,
फलं हि शौचपालनस्य भूरि तत् प्रदृश्यते.
तथेन्द्रियादिनां जयस्तथात्मदर्शनादिकं,
श्रुतः फलं तदत्र भूतिमिच्दुभिर्विलोक्यातम्. (५६)

शौच की सिद्धि होने पर दूसरों के संग का त्याग और अपने शरीर से भी घृणा उत्पन्न होती है. उसके दर्शन भी श्री महाराज जी में भरपूर होते हैं. इसी से इन्द्रियों पर विजय और आत्मदर्शन के भी फल जो शास्त्रों में बताये हैं वह कल्याणकामी लोगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखना चाहिए. (५६)

शौच कहते हैं शुद्धि को, पवित्रता को. यह शौच, शुचिता या पवित्रता भी दो प्रकार की होती है- एक बाह्य और दूसरी आभ्यंतर. महर्षि मनु शौच के सम्बन्ध में कहते हैं – ‘साधक को प्रतिदिन जल से शरीर की शुद्धि, सत्याचरण से मन की शुद्धि, विद्या और तप के द्वारा आत्मा की शुद्धि तथा ज्ञान के द्वारा बुद्धि की शुद्धि करनी चाहिए.’ पवित्र जल से शरीर की शुद्धि होती है. मन, बुद्धि एवं आत्मा की शुद्धि के लिये ऋषियों द्वारा बताये गए उपायों को करना ही होगा.
शरीर की बार-बार जल आदि से शुद्धि करता हुआ साधक जब यह अनुभव करता है कि इस शरीर को मैं इतना शुद्ध करने का प्रयास करता हूँ, फिर भी यह शरीर और अधिक मलीन ही होता रहता है. इसमें चारों ओर से दुर्गन्ध ही निकलती रहती है तो साधक को स्वांग-जुगुप्सा – अपने शरीर के अंगों से ग्लानी, घृणा होने लगती है तथा दूसरों के शरीर को भी वह जब देखता है तब उसको सबके शरीर मलमूत्र आदि से भरे हुए दिखते हैं और वह दूसरे स्त्री-पुरुष आदि से अपने शरीर के स्पर्श की इच्छा नहीं करता. आलिंगन आदि से भी उसे घृणा होने लगती है. यह तो बाह्य शौच का फल है.
आभ्यांतरिक शुद्धि का फल महर्षि पतंजलि बताते हैं- ‘सत्य, अहिंसा, विद्या, तप आदि आभ्यांतरिक शौच से अंतःकरण की शुद्धि, मन की प्रसन्नता और एकाग्रता, इन्द्रियों पर विजय तथा आत्मा को जानने की योग्यता प्राप्त होती है.
जिन्हें भी शौच की सिद्धि को देखना हो वह पूज्य बाबा में इनका दर्शन कर सकते हैं.

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)



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