Sunday, September 16, 2018

Devraha Baba ka GYAN -2

परिग्रहो हि योगिनामहंममादिदुःखद:,
अपीहतस्य वर्जनादनेकजन्मसंस्मृतिः.
गुरौ त्वनेकजन्मनां समक्षबुद्धि दर्शनं,
यतोस्ति तस्य नायुषोपि शक्यमत्रकाल्पनम्. (५५)
योगियों को अहं आदि के परिग्रह से अनेक दुःख होते हैं और परिग्रह के त्याग से अनेक जन्मों की स्मृति प्रत्यक्ष विद्यमान जन्म के समान हो जाती है. श्री महाराज जी को अपरिग्रह की सिद्धि के कारण अनेक जन्मों का दर्शन प्रत्यक्ष के समान ही होता है. अतः उनकी आयु की कल्पना करना कठिन है. (५५)
परिग्रह का अर्थ है चारों ओर से संग्रह करने का प्रयत्न करना. इसके विपरीत जीवन जीने के लिये न्यूनतम धन, वस्त्र आदि पदार्थों एवं मकान से संतुष्ट होकर जीवन के मुख्य लक्ष्य ईश्वर-आराधना करना अपरिग्रह है. ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार जीवन में जो कुछ भी धन, वैभव, भूमि, भवन आदि ऐश्वर्य हमें प्राप्त हों, उनको कभी अहंकार के वशीभूत होकर अपना नहीं मानना चाहिए तथा भौतिक सुख तथा बाह्य सुख के साधनों की इच्छा भी साधक को नहीं करनी चाहिए. अनासक्त भाव से जीवन जीते हुए अपने-आप जो भी सुख-साधन उपलब्ध हों, उनका उपयोग दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये करना चाहिए.
अपरिग्रह के पालन से योगी आत्मबोध की स्थिति प्राप्त कर जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता है. इसकी सिद्धि अनेक जन्मों की स्मृति को जगा देती है. ऐसे में योगी की आयु का अनुमान लगाना असंभव हो जाता है. यही बात पूज्य बाबा के बारे में हमें देखने को मिलती है.


‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

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