शिशुस्तवास्म्यकिन्चिनो न भावभक्तिरस्तिमें,
प्रतोषनेप्यपेक्षितं न साधनं ममास्त्यहो.
अतो गतेर्ममाद्य किं भविष्यतीति साम्प्रतं,
न चिन्तयामि निर्भरो यतस्त्वमेव रक्षकः. (६३)
हे प्रभो ! मैं आपका अबोध बालक हूँ. मेरे पास न भाव है न भक्ति, आपको प्रसन्न करने योग्य मेरे पास कोई साधन नहीं है. अतः सब प्रकार से साधन रहित मेरा क्या होगा इस सम्बन्ध में भी मुझे चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि आप ही मेरे संरक्षक हैं. (६३)
परम पूज्य जगद्गुरु जी महाराज अपने को पूज्य बाबा का एक अबोध बालक बता रहे हैं. भक्ति में बालक ही तो होना होता है. देखो एक छोटा सा बालक कितना निर्मल होता है. जिसके बारे में सुभद्रा जी कहती हैं- ‘वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप’. ऐसा इसलिए है क्योंकि बच्चा पूरी तरह से माँ का होता है. उसमें आपना कोई अहं नहीं होता. जैसा है माँ का है. उसके मन में ये नहीं होता कि मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ. उसमें केवल ये बात है कि मैं माँ का हूँ. यही निर्मलता है. इसीलिए जगद्गुरु जी महाराज कह रहे हैं कि साधनहीनता की मुझे चिंता नहीं है. ‘मल’ है कि मैं संसार का हूँ.. और ‘निर्मलता’ है कि मैं केवल प्रभु का / गुरु का हूँ.
हम जैसे हैं - अच्छे या बुरे, सद्गुरुदेव के हैं.. और हम वैसे ही उनके सामने चले जाए.. कोई बनाव या श्रृंगार नहीं करें.. अपने को केवल और केवल गुरुदेव का ही मानें..
आप अपने बल का आश्रय लेते हो ‘बड़े’ हो जाते हो- आप साधनों का सहारा लेते रहो, कुछ नहीं होगा.. जैसे हो वैसे ही सामने आ जाओ, गुरुदेव ही पवित्र करेंगे.. भक्ति में निर्बलता ही निर्मलता है..
‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)
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