Wednesday, September 26, 2018

Devraha Baba Gyan -6

सकृत्प्रपन्नरक्षणं प्रसिद्धमेव ते व्रतम्,
श्रुतं मया च भूरिशो भवामि तेन निर्भयः.
अतो न दोषदर्शने प्रभुर्भवान् हिसाम्प्रतं,
नवीनमार्गसंश्रयो न शोभनं भवेदिह. (६६)

भगवान एक बार भी शरण में आये हुए जीव की रक्षा करने की आपकी प्रतिज्ञा प्रसिद्ध है और मैंने भी इसे सुना है इसी से मैं निर्भय हो गया हूँ. अतः भगवान इस समय आप मेरे दोष नहीं देख सकते हैं. नवीन मार्ग अपनाने में बड़ी कठिनाई होगी और इसमें शोभा भी नहीं है. (६६)

प्रभु की प्रतिज्ञा है कि वह शरण में आये हुए का कभी त्याग नहीं करते हैं. कोई कितना बड़ा पापी भी क्यों न हो अगर वह प्रभु की शरण में आ जाता है तो प्रभु उसे स्वीकार कर लेते हैं और उसे अभय प्रदान करते हैं – ‘मम पन सरनागत भयहारी’ / ‘कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू, आएँ सरन तजउ नहीं ताहू’... जिसने प्रभु के इस वचन को सुना है वह निर्भय हो जायेगा.. क्योंकि उसे पता चल जायेगा कि कमी अपनी तरफ से ही है कि अब तक शरण नहीं हुए हैं.. शरण होते ही हम प्रभु के हो जाते हैं. जब तक शरण नहीं हुए हैं तब तक ही पापों के हैं मतलब पापी हैं.. शरण जाते ही भागवत हो जाते हैं.. जब कोई केवल प्रभु को देखता है ( शरणागत होता है ) तो प्रभु भी केवल उसी को देखते हैं उसके पापों को नहीं..

‘भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक’ – प्रभु और गुरु में कोई भेद नहीं है इसीलिए यह बात पूज्य बाबा से निवेदित करी जा रही है.. बाबा की शरण हो जाना ही श्रेयस्कर है क्योंकि अपने से और कोई साधन बन भी नहीं सकता. इसलिए कोई नया मार्ग अपनाने में बहुत कठिनाई है.. साथ में दूसरी बात यह भी है कि किसी नए मार्ग का अवलंब लेने की आवश्यकता भी क्या है जब ‘शरणागति’ से उत्तम साधन कोई हो ही नहीं सकता जिसकी महिमा स्वयं श्री गोविन्द ने गाई है, जो गीता का सार है.. इसलिए बाबा की शरण होने में ही शोभा है.

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

Sunday, September 23, 2018

Devraha Baba -Gyan 5

न निर्बलोस्ति मादृशस्स्तथा भवादृशोवली,
न मत्समोस्ति पातकी न मोचकश्यत्वत्समः.
इदं विचित्रसंगतं हि दैवनिर्मितं प्रभो,
कदापि नैव मुच्यतामतीव दुर्लभं महत्. (६५)

प्रभो ! मेरे जैसा कोई निर्बल व्यक्ति नहीं है और आप जैसा बलवान भी कोई नहीं है. मेरे समान पातकी नहीं है और आप जैसा कोई पातकों से छुड़ानेवाला नहीं है. प्रभो ! यह विधाता द्वारा विचित्र संयोग ही रचा गया है. हे भगवन आप इसे कभी भी न छोड़े यह अत्यंत दुर्लभ ही है. (६५)

प्रभु ने हमें परम पूज्य ब्रह्मर्षि श्री देवराहा बाबा जी के पास पहुंचाकर एक विशेष संयोग रच दिया है. यह एक ऐसा संयोग है जो अत्यंत ही दुर्लभ है. यह संयोग है निर्बल और बलवान के मिलन का, पतित और पतित पावन का..

कोई अपने को निर्बल समझे यही दुर्लभ बात है. जगत में चार प्रकार के बल होते हैं – अपना बल, बन्धु-बान्धवों का बल, अपनी तपस्या ( क़ाबलियत ) का बल और अपने धन का बल. जब तक इनमें से एक भी रहता है तब तक व्यक्ति अपने को निर्बल मानता ही नहीं भले ही कितने कष्ट सहता रहे. वास्तव में तो यह सारे बल प्रभु की कृपा से ही हैं और जब प्रभु की विशेष कृपा होती है तब उनकी इस कृपा का बोध होता है. इसलिए अपने को निर्बल मानना ही दुर्लभ है. इसीतरह अपने को कोई पापी भी नहीं मानता है वरना पाप से दूर रहता और किए हुए पापों से छुटकारे का कोई उपाय करता.

अब कोई अपने को निर्बल मानकर किसी बलवान ( गुरु ) को पाने की चाह रखे या पतित मानकर पतित पावन को खोजे – यह दुर्लभ में भी दुर्लभ है. फिर किसी निर्बल को बलवान मिल जाए या पतित को पतित पावन मिल जाए – यह तो अत्यंत दुर्लभ है.

हे गुरुदेव ! जब प्रभु ने यह अत्यंत दुर्लभ संयोग करा ही दिया है तब आप कृपा करके इस जीव को स्वीकार लीजिए, इसे छोड़िये नहीं.

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

Friday, September 21, 2018

Devraha Baba gyan -4

इयं नदी त्वगाधनीरवाहिनीपुरोमम,
तरी च जीर्णतां गता न प्रत्ययस्तथात्मनि.
अवश्यमत्र मज्जने न शंसस्तथाप्यहं,
निशम्य नाविंक भवन्तमद्य चास्मिनिवृतः. (६४)

हे प्रभो ! मेरे सामने यह अगाध जल से पूर्ण नदी ही नहीं है, मेरी नौका भी पुरानी हो गयी है. अपने पर भी मुझे भरोसा नहीं है. अतः यद्यपि मेरे डूबने में कोई संदेह नहीं है फिर भी केवल यही भरोसा है कि आपने इस नैया की पतवार सम्भाल रखी है. (६४)

‘तुम्हारी हो रही किरपा तभी कायम यह हस्ती है
मिला है प्यार थोड़ा सा तभी जीवन में मस्ती है’

हमारी स्थिति ऐसी है कि सामने अगाध जल से भरी हुई नदी है, हमें तैरना आता नहीं है और पास में जो नाव वह भी जर्जर है. अब ऐसे में डूबना स्वाभाविक ही है.

यह अगाध जल से भरी हुई नदी – ‘संसार’ है. हम तैर नहीं सकते हैं मतलब हमसे कोई साधन नहीं बनता है. हम कोई साधन नहीं कर सकते हैं. ‘जर्जर नाव’ हमारे द्वारा पूर्व जन्म में हुए कुछ थोड़े-बहुत पुण्य हैं जिसके सहारे इस संसार को पार कर सकें. पर यह पुण्य उतने नहीं है जो आराम से पार लगा पायें इसलिए ‘जर्जर’ हैं.

अब इतना होने पर भी हम डूब नहीं रहे हैं, जबकि डूबने की पूरी-पूरी सम्भावना है, तो इसका कारण यही है कि परम पूज्य सद्गुरुदेव ब्रह्मर्षि श्री देवराहा बाबा सरकार ने इस नाव की पतवार संभाल रखी है. पूज्य बाबा की कृपा से ही यह जीव डूबता नहीं है.

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

Monday, September 17, 2018

Devraha Baba ka Gyan -3

शिशुस्तवास्म्यकिन्चिनो न भावभक्तिरस्तिमें,
प्रतोषनेप्यपेक्षितं न साधनं ममास्त्यहो.
अतो गतेर्ममाद्य किं भविष्यतीति साम्प्रतं,
न चिन्तयामि निर्भरो यतस्त्वमेव रक्षकः. (६३)

हे प्रभो ! मैं आपका अबोध बालक हूँ. मेरे पास न भाव है न भक्ति, आपको प्रसन्न करने योग्य मेरे पास कोई साधन नहीं है. अतः सब प्रकार से साधन रहित मेरा क्या होगा इस सम्बन्ध में भी मुझे चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि आप ही मेरे संरक्षक हैं. (६३)

परम पूज्य जगद्गुरु जी महाराज अपने को पूज्य बाबा का एक अबोध बालक बता रहे हैं. भक्ति में बालक ही तो होना होता है.  देखो एक छोटा सा बालक कितना निर्मल होता है. जिसके बारे में सुभद्रा जी कहती हैं- ‘वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप’. ऐसा इसलिए है क्योंकि बच्चा पूरी तरह से माँ का होता है. उसमें आपना कोई अहं नहीं होता. जैसा है माँ का है. उसके मन में ये नहीं होता कि मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ. उसमें केवल ये बात है कि मैं माँ का हूँ. यही निर्मलता है. इसीलिए जगद्गुरु जी महाराज कह रहे हैं कि साधनहीनता की मुझे चिंता नहीं है. ‘मल’ है कि मैं संसार का हूँ.. और ‘निर्मलता’ है कि मैं केवल प्रभु का / गुरु का हूँ.

हम जैसे हैं - अच्छे या बुरे, सद्गुरुदेव के हैं.. और हम वैसे ही उनके सामने चले जाए.. कोई बनाव या श्रृंगार नहीं करें.. अपने को केवल और केवल गुरुदेव का ही मानें..

आप अपने बल का आश्रय लेते हो ‘बड़े’ हो जाते हो-  आप साधनों का सहारा लेते रहो, कुछ नहीं होगा.. जैसे हो वैसे ही सामने आ जाओ, गुरुदेव ही पवित्र करेंगे.. भक्ति में निर्बलता ही निर्मलता है..

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

Sunday, September 16, 2018

Devraha Baba ka GYAN -2

परिग्रहो हि योगिनामहंममादिदुःखद:,
अपीहतस्य वर्जनादनेकजन्मसंस्मृतिः.
गुरौ त्वनेकजन्मनां समक्षबुद्धि दर्शनं,
यतोस्ति तस्य नायुषोपि शक्यमत्रकाल्पनम्. (५५)
योगियों को अहं आदि के परिग्रह से अनेक दुःख होते हैं और परिग्रह के त्याग से अनेक जन्मों की स्मृति प्रत्यक्ष विद्यमान जन्म के समान हो जाती है. श्री महाराज जी को अपरिग्रह की सिद्धि के कारण अनेक जन्मों का दर्शन प्रत्यक्ष के समान ही होता है. अतः उनकी आयु की कल्पना करना कठिन है. (५५)
परिग्रह का अर्थ है चारों ओर से संग्रह करने का प्रयत्न करना. इसके विपरीत जीवन जीने के लिये न्यूनतम धन, वस्त्र आदि पदार्थों एवं मकान से संतुष्ट होकर जीवन के मुख्य लक्ष्य ईश्वर-आराधना करना अपरिग्रह है. ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार जीवन में जो कुछ भी धन, वैभव, भूमि, भवन आदि ऐश्वर्य हमें प्राप्त हों, उनको कभी अहंकार के वशीभूत होकर अपना नहीं मानना चाहिए तथा भौतिक सुख तथा बाह्य सुख के साधनों की इच्छा भी साधक को नहीं करनी चाहिए. अनासक्त भाव से जीवन जीते हुए अपने-आप जो भी सुख-साधन उपलब्ध हों, उनका उपयोग दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये करना चाहिए.
अपरिग्रह के पालन से योगी आत्मबोध की स्थिति प्राप्त कर जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता है. इसकी सिद्धि अनेक जन्मों की स्मृति को जगा देती है. ऐसे में योगी की आयु का अनुमान लगाना असंभव हो जाता है. यही बात पूज्य बाबा के बारे में हमें देखने को मिलती है.


‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)

DEVRAHA BABA KA GYAN (special photos)

परस्य संगवर्जनं तथात्मनो जुगुत्सनं,
फलं हि शौचपालनस्य भूरि तत् प्रदृश्यते.
तथेन्द्रियादिनां जयस्तथात्मदर्शनादिकं,
श्रुतः फलं तदत्र भूतिमिच्दुभिर्विलोक्यातम्. (५६)

शौच की सिद्धि होने पर दूसरों के संग का त्याग और अपने शरीर से भी घृणा उत्पन्न होती है. उसके दर्शन भी श्री महाराज जी में भरपूर होते हैं. इसी से इन्द्रियों पर विजय और आत्मदर्शन के भी फल जो शास्त्रों में बताये हैं वह कल्याणकामी लोगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखना चाहिए. (५६)

शौच कहते हैं शुद्धि को, पवित्रता को. यह शौच, शुचिता या पवित्रता भी दो प्रकार की होती है- एक बाह्य और दूसरी आभ्यंतर. महर्षि मनु शौच के सम्बन्ध में कहते हैं – ‘साधक को प्रतिदिन जल से शरीर की शुद्धि, सत्याचरण से मन की शुद्धि, विद्या और तप के द्वारा आत्मा की शुद्धि तथा ज्ञान के द्वारा बुद्धि की शुद्धि करनी चाहिए.’ पवित्र जल से शरीर की शुद्धि होती है. मन, बुद्धि एवं आत्मा की शुद्धि के लिये ऋषियों द्वारा बताये गए उपायों को करना ही होगा.
शरीर की बार-बार जल आदि से शुद्धि करता हुआ साधक जब यह अनुभव करता है कि इस शरीर को मैं इतना शुद्ध करने का प्रयास करता हूँ, फिर भी यह शरीर और अधिक मलीन ही होता रहता है. इसमें चारों ओर से दुर्गन्ध ही निकलती रहती है तो साधक को स्वांग-जुगुप्सा – अपने शरीर के अंगों से ग्लानी, घृणा होने लगती है तथा दूसरों के शरीर को भी वह जब देखता है तब उसको सबके शरीर मलमूत्र आदि से भरे हुए दिखते हैं और वह दूसरे स्त्री-पुरुष आदि से अपने शरीर के स्पर्श की इच्छा नहीं करता. आलिंगन आदि से भी उसे घृणा होने लगती है. यह तो बाह्य शौच का फल है.
आभ्यांतरिक शुद्धि का फल महर्षि पतंजलि बताते हैं- ‘सत्य, अहिंसा, विद्या, तप आदि आभ्यांतरिक शौच से अंतःकरण की शुद्धि, मन की प्रसन्नता और एकाग्रता, इन्द्रियों पर विजय तथा आत्मा को जानने की योग्यता प्राप्त होती है.
जिन्हें भी शौच की सिद्धि को देखना हो वह पूज्य बाबा में इनका दर्शन कर सकते हैं.

‘देवराहा बाबा स्तुति शतकम्’
रचयिता – अनंतश्री विभूषित श्रीसुग्रीव किलाधीश अयोध्या पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री स्वामी पुरुषोत्तमाचार्य जी महाराज
व्याख्याकर्ता – श्रीराम प्रपत्ति पीठाधीश्वर स्वामी (डॉ.) सौमित्रिप्रपन्नाचार्य जी महाराज
(‘प्रपत्ति प्रवाह’ ग्रन्थ से..)